जब वर्तमान पत्रकारिता व भविष्य की चुनौतियों पर हुआ एक सार्थक चिन्तन

प्रसंग-वश
चंद्रकांत अग्रवाल
पत्रकारिता के पुरोधा पुरूष  स्व. प्रेमशंकर  दुबे के 28 वें वार्षिक पुण्य स्मरण प्रसंग  पर जिला पत्रकार संघ का वर्तमान पत्रकारिता व भविष्य की चुनौतियां विषय पर एक सार्थक चिंतन कदाचित  पहली बार इतनी बेबाकी  से पत्रकारों की ही किसी महफिल में , पत्रकारों द्वारा किया गया। विषय पर बोलने वाले 5 वक्ताओं में एक मैं भी था । शुरूआत मेरे अभिन्न साथी देवेंद्र सोनी ने सोशल मीडिया पर सैंकेड टू सैकेंड अपडेट हो रहे समाचारों की चुनौतियों से की। भाई प्रमोद पगारे ने कदाचित पहली बार सार्वजनिक रूप से किसी कार्यक्रम में इतनी बेबाकी से पत्रकारिता की उन त्रासदियों, बीमारियों, बिडंबनाओं, मजबूरियों, व ज्यादा खुलकर कहंू तो पत्रकारिता की उस गंदगी जिसकी संड़ाध अब पूरे देश को प्रभावित कर रही हैं पर खुलकर कुछ तथ्यात्मक व भावनात्मक बातें की। तथ्यात्मक बातों में पत्रकारिता को एक मुनाफे  का व्यापार बनाने की कुत्सित मानसिकता, किसी खबर का महत्व उसके मुख्य पात्र व्यक्ति या संस्था द्वारा किसी अखबार  को विज्ञापन या अन्यान्य ढंग से दिये गये आर्थिक सहयोग के आधार पर तय करने के मापदंडों व संबंधित व्यक्ति से अखबार  के संवाददाताओं से व्यक्तिगत संबंधों के आधारों पर तय होने आदि थी।
  वहीं भावनात्मक बातों में खबरों की हत्या कर देने या उसे लहुलुहान  कर देने की मानसिकता प्रमुख थी। खबर की हत्या से मेरा तात्पर्य उस  खबर को अखवार में अपने मनमाने नजरिये से चलाने या संवाददाता के पूर्वाग्रहों के कारण चार कॉलम की खबर को 4 लाइनों में अथवा एक कॉलम में निपटाकर उसे लहुलुहान कर देने से था अथवा तो प्रकाशित ही नहीं करने व बाद में बासी खबर का लेबल लगाकर उसे न छाप पाने की मजबूरी बताने, जो श्री पगारे कदाचित कहना चाहते थे।  हालांकि अपवाद स्वरूप कभी कभी विज्ञापनों की अधिकता भी एक कारण खबर के न छपने का बन जाती हैं। मैं स्वयं इटारसी के 2 ऐसे प्रमुख पत्रकारों को जानता हँू  जो विगत कई सालों से अपनी ऐसे ही  आधारहीन गलतफहमियों या अपने अहंकार  से उपजे पूर्वाग्रहों के कारण शहर के कुछ वजनदार नामों  से संबंधित खबरों में अपने दुराग्रह की कैंची बड़े ही शर्मनाक ढंग से चलाते है।  जिनको नाम जानने की उत्सुकता हो मुझसे व्यक्तिगत संपर्क करें। वैसे किसी दिन मेरा मन हुआ तो मैं किसी सार्वजनिक कार्यक्रम में भी उनकी उपरोक्त महानता को उजागर कर सकता हँू। क्योंकि प्रमोद पगारे जितना बेबाकी से बोलने के लिए जाने जाते हेंैं, उससे ज्यादा बेबाकी से लिखने की मेरी कलम को आदत सी हो गयी हैं, यह भी सभी जानते हेैं। इस तरह कैंची संवाददाता या ब्यूरोचीफ की चलती हैे और पाठकों में छबि अखबार  की खराब होती हैं।  क्या अखबार के संपादकों/ मालिकों को अपने ऐसे प्रतिनिधियों की पहचान समय रहते नहीं कर लेनी चाहिए।  अब तो क्षेत्रीय कार्यालय होशंगाबाद में खुलने से यह काम और भी आसान हो गया हैं। श्री पगारे ने प्रिंट मीडिया के लिए भविष्य की चुनौतियों ंको बहुत अधिक गंभीरता से लेने पर भी जोर दिया। मैं भी मानता हंू कि वास्तव में वर्तमान व भविष्य दोनों में ही यह प्रिंट मीडिया के लिए अग्नि परीक्षा का दौर हैं। इलेक्ट्रानिक मीडिया व सोशल मीडिया का प्रभाव समाज पर लगातार बढ़ता जा रहा हैं। आम पाठक खबर की तह तक जाने,खबर के पूरे सच को जानने में ज्यादा रूचि लेने लगा है। क्योंकि अब उसके पास विकल्पों की कमी नहीं हैं। मैंनें कार्यक्रम में अपनी  बात रखते हुए प्रिंट मीडिया की ऐसी ही एक  त्रासदी  और मेरी नजर में सबसे बड़ी कमजोरी को रेखांकित किया। आफिस या घर में बैठे बैठे फील्ड रिपोर्टिंग कर टेबल न्यूज बनाने के वर्तमान पत्रकारिता के एक कल्चर की ओर इशारा किया। मेरा संकेत पत्रकारों की सुविधाभोगिता से तो जुड़ा ही था साथ ही अपने अखबार के प्रति उनकी जबावदेही से भी संबंधित था। बिना फील्ड पर जाये सोशल मीडिया से जानकारी लेकर संबंधित व्यक्तियों से मोबाइल द्वारा चर्चा कर उनके वर्सन सहित खबर बनाने का यह फै शन विगत कई सालों से देख रहा हंू। कई बार तो ऐसी खबरें लीड में भी लगी देखी हैं। आयोजकों द्वारा पत्रकारों को घर बैठे प्रेस विज्ञप्तियों द्वारा अपने आयोजन या अन्य किसी कदम की जानकारी भेज देना भी इस सुविधा भोगिता का एक प्रमख्ुा कारण है। क्योंकि यदि आप पत्रकारिता के मूल्यों व आदर्शों को थोड़ा सा भी जी रहें हैं और यदि आपकी संवेदनशीलता संतोष जनक है तो फिर आप  किसी भी खबर को पढ़कर सहज ही यह अंदाजा लगा सकते हैं कि यह खबर टेबिल पर बैठकर लिखी गयी हेै या कि फील्ड पर जाकर। डॉ. कश्मीर उप्पल ने पत्रकारों को आजादी के बाद अभिव्यक्ति की आजादी के स्वतंत्रता सेनानियों के रूप में स्वीकारा। 
 हालांकि उनकी इस बात से मैं पूरी तरह सहमत नहीं हो पाया पर उनकी एक बात जो मुझे बहुत अच्छी लगी वह यह थी कि राष्ट्रीय स्तर केे मुद्दों,घटनाओं व संसद से जुड़े घटनाक्रम से जुड़ी पत्रकारिता करने वाले पत्रकारों की अपेक्षा उन्होंने उन पत्रकारों की भूमिका ज्यादा महत्वपूर्ण मानी, जो अपने गांव, नगर के, नगरपालिका, ग्राम पंचायत से जुड़े जनहित के मुद्दों पर खबर बनाते हैं। एडवोकेट रमेश साहू ने यह कहा कि लोकतंत्र का चौथा स्तंभ पत्रकारिता वर्तमान में शेष तीनों ख्ंाभों, कार्यपालिका, न्यायपालिका व व्यवस्थापिका को सुपरसीड कर रही हैं। स्वयं को सबसे ऊपर व सर्वश्रेष्ठ मानकर चलने लगी हैं। मुझे ऐसा नहीं लगता। हालांकि कई मामलों में यह तथ्य सही भी लग सकता हैं। पर इस तरह यदि आप पत्रकारिता को परिभाषित करते हैं तो आप आधा सच ही कह रहे हैं। क्योंकि इस तरह तो शेष तीनों स्तंभों को भी परिभाषित किया जा सकता है, अलग-अलग विचार धारा के बुद्धिजीवियों द्वारा। रमेश साहू अनुजवत मेरे मित्र हैं और उन्होनें वर्तमान पत्रकारिता के स्वरूप पर भविष्य की चुनौतियों के संदर्भ में एक खुली बहस की जरूरत बतायी। उनकी इस बात से मैं जरूर पूरी तरह सहमत हँू। क्योंकि अपनी पत्रकारिता में प्रामाणिकता व पारदर्शिता का दावा करने वालों को ऐसी खुली बहस से बचना भी नहीं चाहिए। मुझे यह देखकर दुख भी हुआ कि इटारसी की पत्रकारिता के सर्वमान्य पुरोधा पुरूष की पुण्य तिथि व उसके साथ पत्रकारिता से जुड़े एक ज्वलंत विषय पर ऐसी चर्चा के इस मूल्यवान सत्र में शहर के आधे पत्रकार अनुपस्थित रहे। इसके कारणों की चर्चा मैं यहां नहीं करना चाहता क्योंकि इससे विषय में भटकाव होगा। सम्मानित हुुए पत्रकार प्रहलाद शर्मा ने अपने लगभग 35 वर्ष के पत्रकारिता के निजी अनुभवों के आधार पर इसकी जटिलताओं,मजबूरियों को बखूबी रेखांकित किया। राजनीति व ब्यूरोक्रेसी का पाखंड उन्होंनें जिस शिद्दत से अपने व्यक्तिगत अनुभवों से व्यक्त किया, वैसा प्राय: सभी पत्रकार प्राय: महसूस करते ही होंगे। यह अलग बात है कि सार्वजनिक रूप से इसे बहुत कम लोग ही मुखरता से कह पाते हैं। 
 प्रहलाद शर्मा की साफगोई  अच्छी लगी मुझे। उन्होनेंं बिना किसी लाग लपेट के अपने पत्रकारिता की जीवन पुस्तिका के कुछ पन्ने पलटे व यह बताया कि प्रतिकूल परिस्थितियों में भी कोई पत्रकार किस तरह अपनी खबर को ईमानदार बनाए रख सकता हैं। भ्रष्टाचार के खिलाफ, राजनैतिक, प्रशासनिक  व अखबार प्रबंधकों की दखलंदाजी के बावजूद कोई पत्रकार अपनी कलम की ईमानदारी को, पत्रकारिता के मूल्यों को कैसे बचाकर रख सकता हैं। पर वहीं उन्होंनें साहित्य की एक विद्या व्यंग्य- लेखन को पत्रकारिता की पूरक भी सिद्ध कर दिया। यह स्पष्ट कर दिया कि पत्रकारिता की अदृश्य बंदिशों के बीच किस तरह व्यंग्य आलेख किसी पत्रकार की अभिव्यक्ति की एक कारगर ताकत होते हैं। मैंने अपने विगत 37 वर्ष के पत्रकारिता के जीवन में प्रांरभ से ही अपने ईष्ट की कृपा से स्वप्रेरणा से ही यह प्रयोग कई बार- बार बार किया, अत: मुझे बहुत खुशी हुई कि चलो अपनी सोच का कोई लेखक/ पत्रकार मिला। सत्य नेपथ्य के शीर्षक से मेरा एक बहुचर्चित दैनिक कालम दरअसल खबरों के पीछे के उस सच पर ही केंद्रित होता था जो अपरिहार्य कारणों से खबरों में बयां नहीं हो पाते थे। विक्रम और वेताल ,खरी खरी, प्रसंग वश आदि शीर्षक के कालम भी इसी प्रयोग के अन्य आयाम रहे। इसी तर्ज पर विगत 3-4 दशकों से कई प्रमुख दैनिकों ने भी अपने अलग अलग कॉलम बनाए हुए हैं। ये कालम देश, प्रदेश, जिले व शहर स्तर की खबरों के पीछे के अदृश्य सच ही बयां करते हैं।  आज के कॉलम को एक प्रसंग से विराम देना चाहंूगा जिसका जिक्र मैने कार्यक्रम में भी किया था, पत्रकारिता के वर्तमान व भविष्य की चुनौतियों के लिए एक संदेश देने व स्व. प्रेमशंकर दुबे के व्यक्तित्व को भी अभिव्यक्त करने हेतु। न्याय -अन्याय के दो पाटों के बीच पिसते इस देश के आम आदमी की त्रासदी के इस परिदृश्य में मुझे स्मरण हो रहा हैं न्यायशास्त्र  के प्रकांड विद्वान आचार्य रंगनाथ जिनका लिखित ग्रंथ न्याय चिंतामणी विश्व भर में प्रख्यात हैं के जीवन का एक प्रसंग। रंगनाथ जी का बाल्यकाल अभावों में बीता। एक गरीब विधवा माँ के पुत्र रंगनाथ जी तब 5 साल के रहे होंगें।  अधनंगे बालक से मां  ने कहा जा पडु़ोस से आग मांग ला। माचिस या कोई अन्य साधन चूल्हा जलाने का घर में नहीं था। बालक पड़ौसी विद्वान के घर गया जिस पर लक्ष्मी व सरस्वती  दोनों की कृपा थी। बालक उसके घर की रसोई में चला गया।  
 चूल्हा जल रहा था। बालक ने पड़ौसी के नौकर से आग मंागी। नौकर ने देखा  कि अधनंगा बालक आग के लिए कोई  पात्र लिए बिना आया हैं। उसे क्रोध आया । उसने सबक सिखाने एक बड़े चम्मच से एक जलता कंडा  उठा बालक के हाथों में देना चाहा। बालक ने यह देख तत्परता से अपने हाथों से चूल्हें के आसपास फैली राख दोनों हथेलियों पर लगाकर उस जलते कंडे को हाथों में ले लिया। यह दृश्य उस घर का मालिक पड़ौसी विद्वान देख रहा था । वह बालक के पीछे पीछे उसके घर पहुंचा व उसकी माँ से बोला बहन मैने आज कुछ ऐसा देखा हैं कि मैं अब इस बालक को पढ़ाना चाहता हँू , मां तो हतप्रभ थी क्या बोलती। वही बालक आगे चलकर न्याय शास्त्र का प्रकांड विद्वान रंगनाथ बना। यह प्रसंग पत्रकारिता के संवाहकों को यह संदेश देता हैं कि प्रतिकूल  परिस्थितियों की आग को झेलने के लिए आपको अपनी बुद्धि, विवेक व संयम की राख  अपने हाथों में लगा लेनी चाहिए। फिर आपके हाथ कभी नहीं जल पायेंगें। स्व. प्रेमशंकर दुबे जी का व्यक्तित्व भी ऐसा ही था। प्रतिकूल परिस्थितियों व साधनों के अभाव में भी एक साथ करीब 20-22 प्रमुख अखबारों की रिपोर्टिंग पूरी ईमानदारी से कर पाना कितना कठिन रहा होगा,यह कोई भी पत्रकार आज तो आसानी से समझ भी नहीं सकता हैं।